12-04-84  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

ब्राह्मण जीवन का फाण्डेशन - ‘पवित्रता’

दु:खों से छुड़ाने वाले, धोखों से बचाने वाले, रहमदिल बापदादा बोले:-

आज बापदादा सभी होलीहंसों को देख रहे हैं। हर एक होलीहंस कहाँ तक होली बने हैं, कहाँ तक हंस बने हैं! पवित्रता अर्थात् होली बनने की शक्ति कहाँ तक जीवन में अर्थात् संकल्प, बोल और कर्म में, सम्बन्ध में, सम्पर्क में लाई है। हर संकल्प, होली अर्थात् पवित्रता की शक्ति सम्पन्न है! पवित्रता के संकल्प द्वारा किसी भी अपवित्र संकल्प वाली आत्मा को परख और परिवर्तन कर सकते हो? पवित्रता की शक्ति से किसी भी आत्मा की दृष्टि, वृत्ति और कृति तीनों ही बदल सकते हो। इस महान शक्ति के आगे अपवित्र संकल्प भी वार नहीं कर सकते। लेकिन जब स्वयं संकल्प, बोल वा कर्म में हार खाते हो तब दूसरे व्यक्ति वा वायब्रेशन से हार होती है। किसी के भी सम्बन्ध वा सम्पर्क से हार खाना यह सिद्ध करता है कि स्वयं बाप से सर्व सम्बन्ध जोड़ने में हार खाये हुए हैं। तब किसी सम्बन्ध वा सम्पर्क से हार खाते हैं। पवित्रता में हार खाना, इसका बीज है किसी भी व्यक्ति वा व्यक्ति के गुण, स्वभाव, व्यक्तित्व वा विशेषता से प्रभावित होना। यह व्यक्ति वा व्यक्त भाव में प्रभावित होना, प्रभावित होना नहीं लेकिन बरबाद होना है। व्यक्ति की व्यक्तिगत विशेषता वा गुण, स्वभाव बाप की दी हुई विशेषता है अर्थात् दाता की देन है। व्यक्ति पर प्रभावित होना यह धोखा खाना है। धोखा खाना अर्थात् दु:ख उठाना। अपवित्रता की शक्ति, मृगतृष्णा समान शक्ति है जो सम्पर्क वा सम्बन्ध से बड़ी अच्छी अनुभव होती है, आकर्षण करती है। समझते हैं कि मैं अच्छाई की तरफ प्रभावित हो रहा हूँ। इसलिए शब्द भी यही बोलते वा सोचते कि यह बहुत अच्छे लगते या अच्छी लगती है वा इसका गुण वा स्वभाव अच्छा लगता है। ज्ञान अच्छा लगता है। योग कराना अच्छा लगता है। इससे शक्ति मिलती है! सहयोग मिलता है, स्नेह मिलता है। अल्पकाल की प्राप्ति होती है लेकिन धोखा खाते हैं। देने वाले दाता अर्थात् बीज को, फाउण्डेशन को खत्म कर दिया और रंग-बिरंगी डाली को पकड़कर झूल रहे हैं तो क्या हाल होगा? सिवाए फाउण्डेशन के डाली झुलायेगी या गिरायेगी? जब तक बीज अर्थात् दाता, विधाता से सर्व सम्बन्ध, सर्व प्राप्ति के रस का अनुभव नहीं तब तक कब व्यक्ति से, कब वैभव से, कब वायब्रेशन- वायुमण्डल आदि भिन्न-भिन्न डालियों से अल्पकाल की प्राप्ति का मृगतृष्णा समान धोखा खाते रहेंगे। यह प्रभावित होना अर्थात् अविनाशी प्राप्ति से वंचित होना। पवित्रता की शक्ति जब चाहो जिस स्थिति को चाहे, जिस प्राप्ति को चाहो, जिस कार्य में सफलता चाहो, वह सब आपके आगे दासी के समान हाजर हो जायेगी। जब कलियुग के अन्त में भी रजोप्रधान पवित्रता की शक्ति धारण करने वाले नामधारी महात्माओं की अब अन्त तक भी प्रकृति दासी होने का प्रमाण देख रहे हो। अब तक भी नाम महात्मा चल रहा है, अब तक भी पूज्य हैं। अपवित्र आत्मायें झुकती हैं। तो सोचो - अन्त तक भी पवित्रता के शक्ति की कितनी महानता है। और परमात्मा द्वारा प्राप्त हुई सतोप्रधान पवित्रता कितनी शक्तिशाली होगी। इस श्रेष्ठ पवित्रता की शक्ति के आगे अपवित्रता झुकी हुई नहीं लेकिन आपके पांव के नीचे हैं। अपवित्रता रूपी आसुरी शक्ति, शक्ति स्वरूप के पांव के नीचे दिखाई हुई है। जो पांव के नीचे हारी हुई है, हार कैसे खिला सकती है।!

ब्राह्मण जीवन और हार खाना इसको कहेंगे नामधारी ब्राह्मण। इसमें अलबेले मत बनो। ब्राह्मण जीवन का फाउण्डेशन है - पवित्रता की शक्ति। अगर फाउण्डेशन कमज़ोर है तो प्राप्तियों की 21 मंज़िल वाली बिल्डिंग कैसे टिक सकेगी? यदि फाउण्डेशन हिल रहा है तो प्राप्ति का अनुभव सदा नहीं रह सकता अर्थात् अचल नहीं रह सकते। और वर्तमान युग को वा जन्म की महान प्राप्ति का अनुभव भी नहीं कर सकते। युग की, श्रेष्ठ जन्म की महिमा गाने वाले ज्ञानी-भक्त बन जायेंगे। अर्थात् समझ है लेकिन स्वयं नहीं हैं, इसको कहते हैं - ज्ञानी- भक्त। अगर ब्राह्मण बनकर सर्व प्राप्तियों का, सर्व शक्तियों का वरदान या वर्सा अनुभव नहीं किया तो उसको क्या कहेंगे? वंचित आत्मा वा ब्राह्मण आत्मा? इस पवित्रता के भिन्न-भिन्न रूपों को अच्छी तरह से जानों, स्वयं के प्रति कड़ी दृष्टि रखो। चलाओ नहीं। निमित्त बनी हुई आत्माओं को, बाप को भी चलाने की कोशिश करते हैं। यह तो होता ही है, ऐसा कौन बना है! वा कहते हैं - यह अपवित्रता नहीं है, महानता है, यह तो सेवा का साधन है। प्रभावित नहीं हैं, सहयोग लेते हैं। मददगार है इसीलिए प्रभावित हैं। बाप भूला और लगा माया का गोला। या फिर अपने को छुड़ाने के लिए कहते हैं - मैं नहीं करती, यह करते हैं। लेकिन बाप को भूले तो धर्मराज के रूप में ही बाप मिलेगा। बाप का सुख कभी पा नहीं सकेंगे। इसलिए छिपाओ नहीं, चलाओ नहीं। दूसरे को दोषी नहीं बनाओ। मृगतृष्णा के आकर्षण में धोखा नहीं खाओ। इस पवित्रता के फाउण्डेशन में बापदादा धर्मराज द्वारा 100 गुणा, पद्मगुणा दण्ड दिलाता है। इसमें रियायत कभी नहीं हो सकती। इसमें रहमदिल नहीं बन सकते। क्योंकि बाप से नाता तोड़ा तब तो किसी के ऊपर प्रभावित हुए। परमात्म प्रभाव से निकल आत्माओं के प्रभाव में आना अर्थात् बाप को जाना नहीं, पहचाना नहीं। ऐसे के आगे बाप, बाप के रूप में नहीं धर्मराज के रूप में है। जहाँ पाप है वहाँ बाप नहीं। तो अलवेले नहीं बनो। इसको छोटी सी बात नहीं समझो। वह भी किसी के प्रति प्रभावित होना, कामना अर्थात् काम विकार का अंश है। बिना कामना के प्रभावित नहीं हो सकते। वह कामना भी काम विकार है। महाशत्रु है। यह दो रूप में आता है। कामना या तो प्रभावित करेगी या परेशान करेगी। इसलिए जैसे नारे लगाते हो - काम विकार नर्क का द्वार। ऐसे अब अपने जीवन के प्रति यह धारणा बनाओ कि किसी भी प्रकार की अल्पकाल की कामना मृगतृष्णा के समान धोखेबाज है। कामना अर्थात् धोखा खाना। ऐसी कड़ी दृष्टि वाले इस काम अर्थात् कामना पर काली रूप बनो। स्नेही रूप नहीं बनो, विचारा है, अच्छा है, थोड़ा-थोड़ा है ठीक हो जायेगा। नहीं! विकर्म के ऊपर विकराल रूप धारण करो। दूसरों के प्रति नहीं अपने प्रति। तब विकर्म विनाश कर फरिश्ता बन सकेंगे। योग नहीं लगता तो चेक करो - जरूर कोई छिपा हुआ विकर्म अपने तरफ खींचता है। ब्राह्मण आत्मा और योग नहीं लगे, यह हो नहीं सकता। ब्राह्मण माना ही एक के हैं, एक ही हैं। तो कहाँ जायेंगे? कुछ है ही नहीं तो कहाँ जायेंगे? अच्छा-

सिर्फ ब्रह्मचर्य नहीं लेकिन और भी काम विकार के बाल बच्चे हैं। बापदादा को एक बात पर बहुत आश्चर्य लगता है - ब्राह्मण कहता है, ब्राह्मण आत्मा पर व्यर्थ वा विकारी दृष्टि, वृत्ति जाती है। यह कुल कलंकित की बात है। कहना बहन जी, वा भाई जी और करना क्या है! लौकिक बहन पर भी अगर कोई बुरी दृष्टि जाए, संकल्प भी आये, तो उसे कुल कलंकित कहा जाता है। तो यहाँ क्या कहेंगे? एक जन्म के नहीं लेकिन जन्म-जन्म का कलंक लगाने वाले। राज्य भाग्य को लात मारने वाले। ऐसे पद्मगुणा विकर्म कभी नहीं करना। यह विकर्म नहीं, महा विकर्म है। इसलिए सोचो, समझो, सम्भालो। यही पाप जमदूतों की तरह चिपक जायेंगे। अभी भले समझते हैं बहुत मजे में रह रहे हैं, कौन देखता है, कौन जानता है लेकिन पाप पर पाप चढ़ता जाता है और यही पाप खाने को आयेंगे। बापदादा जानते हैं कि इसकी रिजल्ट कितनी कड़ी है। जैसे शरीर से कोई तड़प-तड़प कर शरीर छोड़ता वैसे बुद्धि पापों में तड़प-तड़पकर शरीर छोड़ेगी। सदा सामने यह पाप के जमदूत रहते हैं। इतना कड़ा अन्त है। इसलिए वर्तमान में गलती से भी ऐसा पाप नहीं करना। बापदादा सिर्फ सम्मुख बैठे हुए बच्चों को नहीं कर रहे हैं लेकिन चारों ओर के बच्चों को समर्थ बना रहे हैं। खबरदार, होशियार बना रहे हैं। समझा - अभी तक इस बात में कमज़ोरी काफी है। अच्छा –

सभी स्वयं प्रति इशारे से समझने वाले, सदा अपने विकल्प और विकर्म पर काली रूप धारण करने वाले, सदा भिन्न-भिन्न धोखों से बचने वाले, दु:खों से बचने वाले, शक्तिशाली आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’